भारत की पारंपरिक और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी कोल्हापुरी चप्पल इन दिनों सुर्खियों में है। लेकिन इस बार वजह गर्व की नहीं बल्कि विवाद की है। मशहूर इटालियन लग्ज़री फैशन ब्रांड Prada पर महाराष्ट्र की पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पल की डिज़ाइन चुराने का गंभीर आरोप लगा है। बॉम्बे हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है जिसमें प्राडा पर आरोप लगाया गया है कि उसने बिना अनुमति के भारत की GI-टैग प्राप्त कोल्हापुरी डिज़ाइन की नकल की है और इसका वैश्विक स्तर पर व्यावसायीकरण करने की तैयारी की है।
मिलान फैशन वीक में उठा विवाद
विवाद की शुरुआत 22 जून 2025 को मिलान फैशन वीक (Milano Fashion Week) में हुई, जब प्राडा ने अपने स्प्रिंग/समर 2026 मेन्सवेयर कलेक्शन में “टो रिंग सैंडल” नामक एक प्रोडक्ट पेश किया। इन सैंडल्स की कीमत लगभग 1.2 लाख रुपये (1,200 यूरो) बताई गई और ये डिज़ाइन में कोल्हापुरी चप्पलों से बेहद मिलती-जुलती थीं। सोशल मीडिया और फैशन समुदाय ने इसे “सांस्कृतिक चोरी” (Cultural Appropriation) करार दिया क्योंकि ना तो भारतीय शिल्पकारों को श्रेय दिया गया और ना ही कोई सहयोग या साझेदारी दर्शाई गई।
क्या है कोल्हापुरी चप्पल की खासियत?
कोल्हापुरी चप्पल केवल एक फुटवियर नहीं बल्कि महाराष्ट्र और कर्नाटक के खास जिलों की सांस्कृतिक और कारीगरी परंपरा का प्रतीक है। इसकी शुरुआत 12वीं सदी में कोल्हापुर में हुई थी और यह चप्पल पारंपरिक रूप से चम्भर (दलित) समुदाय के शिल्पकारों द्वारा बनाई जाती है। ये पूरी तरह हस्तनिर्मित होती हैं, जिनमें भैंस या बकरी के चमड़े का उपयोग कर वेजिटेबल डाई से टैनिंग की जाती है। एक जोड़ी चप्पल बनाने में करीब दो हफ्ते लगते हैं।
साल 2019 में कोल्हापुरी चप्पल को भारत सरकार ने GI टैग प्रदान किया, जो इसे विशेष भौगोलिक पहचान और अधिकार देता है। इस टैग के तहत केवल महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली, सातारा, सोलापुर और कर्नाटक के कुछ जिलों में बने प्रोडक्ट ही “कोल्हापुरी” कहला सकते हैं।
PIL में क्या मांग की गई है?
2 जुलाई 2025 को वकील गणेश एस. हिंगमीरे और पुणे के छह अन्य वकीलों ने बॉम्बे हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की। इस याचिका में निम्नलिखित प्रमुख मांगें की गई हैं:-
1 – प्राडा के ‘टो रिंग सैंडल’ के विपणन, बिक्री और निर्यात पर तत्काल रोक लगाई जाए।
2 – प्राडा को सार्वजनिक रूप से माफी मांगने का निर्देश दिया जाए।
3 – कोल्हापुरी चप्पल के कारीगर समुदाय को मुआवजा दिया जाए।
4 – भारतीय GI टैग वाले प्रोडक्ट्स की सुरक्षा के लिए सरकारी नीति बनाई जाए।
याचिका में कहा गया है कि प्राडा ने कोल्हापुरी चप्पल की डिज़ाइन चुराकर न सिर्फ बौद्धिक संपदा अधिकारों का हनन किया, बल्कि कारीगरों की आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान को भी नुकसान पहुंचाया।
प्राडा ने क्या कहा?
प्राडा की ओर से कंपनी के कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी प्रमुख लोरेंजो बेर्टेली ने MACCIA (महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स) को पत्र लिखकर कहा कि डिज़ाइन भारतीय हस्तशिल्प से प्रेरित है, लेकिन यह अभी प्रारंभिक चरण में है और इसका व्यावसायिक लॉन्च नहीं हुआ है। हालांकि याचिकाकर्ताओं का कहना है कि प्राडा की यह सफाई सोशल मीडिया की आलोचना के बाद आई और यह एक सार्वजनिक बयान नहीं, बल्कि निजी संवाद था। इसलिए इसे स्वीकार नहीं किया जाएगा।
GI टैग और कानूनी पेचिदगियां
कानूनी जानकारों की राय बंटी हुई है। कुछ का मानना है कि चूंकि प्राडा ने ‘कोल्हापुरी चप्पल’ शब्द का उपयोग नहीं किया है, इसलिए GI टैग के उल्लंघन को साबित करना कठिन हो सकता है। वकील अमीत नाइक के मुताबिक यह ‘पासिंग ऑफ’ का मामला बन सकता है लेकिन इसमें कानूनी चुनौती अधिक है। वहीं याचिकाकर्ता हिंगमीरे कहते हैं कि छोटे कारीगरों से यह उम्मीद करना कि वे करोड़ों की लागत वाले मुकदमों में वैश्विक ब्रांड से लड़ें, संभव नहीं है इसलिए PIL जरूरी है।
संस्कृति का सम्मान बनाम कॉर्पोरेट मुनाफा
कोल्हापुरी चप्पल विवाद सिर्फ एक डिज़ाइन की नकल का मामला नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक सम्मान, बौद्धिक अधिकार और कारीगरों की आजीविका का प्रश्न है। यह बहस भारत की पारंपरिक शिल्पकला को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाने का भी अवसर बन सकती है, बशर्ते इसके असली रचनाकारों को उनका हक और श्रेय मिले।