गौरी और दिलीप परब, मुंबई में एलएंडटी इन्फोटेक में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर काम कर रहे थे। दोनों की नौकरी शानदार तनख्वाह और सुविधाओं से भरपूर थी, लेकिन मन कोंकण की मिट्टी में ही बसा था। अपने गांव, अपनी जड़ों और प्राकृतिक जीवनशैली की ओर लौटने की चाह उन्हें हमेशा खींचती रहती थी। आखिरकार साल 2021 में उन्होंने बड़ा फैसला लिया, नौकरी छोड़कर सिंधुदुर्ग वापस अपने गांव लौटने का।
शुरुआत: जंगल से खेत तक
गांव लौटकर दोनों ने तिथावली गांव में छह एकड़ की जमीन खरीदी। ये जमीन पहले वन क्षेत्र में आती थी, इसलिए खेती की शुरुआत बिलकुल शून्य से करनी पड़ी। उन्होंने एक एकड़ में लेमनग्रास की जैविक खेती से शुरुआत की और धीरे-धीरे इसे आठ एकड़ तक बढ़ाया। इसमें से छह एकड़ उनकी खुद की है और दो एकड़ जमीन पट्टे पर ली गई है।
क्यों चुनी लेमनग्रास की खेती?
कोंकण की जलवायु गर्मी, बारिश और सर्दी तीनों ही चरम पर होती है। दिलीप के अनुसार, ऐसे मौसम में टिकने वाली फसलें बहुत कम होती हैं। लेकिन लेमनग्रास एक मजबूत औषधीय पौधा है जो साल भर उपज देता है। इसकी मांग भी लगातार बढ़ रही है क्योंकि इसका उपयोग सौंदर्य प्रसाधनों, दवाओं और पेय पदार्थों से लेकर सफाई उत्पादों तक में होता है। लेमनग्रास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह साल में तीन से चार बार कटाई के लिए तैयार हो जाता है, जिससे किसानों को लगातार आमदनी होती रहती है।
जैविक खेती और संसाधन उपयोग
गौरी और दिलीप ने जैविक खेती को अपनाया है। वे वर्मी कम्पोस्ट, गोबर और लेमनग्रास के बायो वेस्ट को मिलाकर जमीन को फिर से उपजाऊ बनाते हैं। इसके बाद बुआई करते हैं। लेमनग्रास की खेती में कटाई के समय इसकी जड़ों को नहीं काटा जाता, जिससे यह बार-बार उगता रहता है।
उन्होंने हैदराबाद से कृष्णा वैरायटी के लेमनग्रास के पौधे खरीदे, जो 2.5 रुपये प्रति पौधा पड़े। एक एकड़ में 25 हजार पौधे लगाए गए और पौधों के बीच पर्याप्त दूरी रखी गई ताकि विकास में बाधा न आए।
प्रोसेसिंग यूनिट और तेल निकालने की प्रक्रिया
खेती के साथ-साथ उन्होंने एक छोटी प्रोसेसिंग यूनिट भी शुरू की, जिसमें पारंपरिक विधि से लेमनग्रास ऑयल निकाला जाता है। भाप के माध्यम से तेल को निकाला जाता है और फिर उसे ठंडा कर एकत्र किया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया तकनीकी रूप से सरल लेकिन मेहनत वाली है। गर्मी में लेमनग्रास से 10 लीटर तक तेल निकलता है, जबकि मानसून में यह घटकर 2.5 लीटर और सर्दियों में लगभग 5 लीटर रह जाता है। औसतन एक टन लेमनग्रास से 7 लीटर तेल निकलता है। एक एकड़ में लगभग 18 टन उत्पादन होता है, जिससे करीब 126 लीटर तेल प्राप्त होता है।
कारोबार का विस्तार: तेल से साबुन और क्लीनर तक
गौरी और दिलीप ने सिर्फ तेल तक खुद को सीमित नहीं रखा। उन्होंने लेमनग्रास ऑयल का उपयोग करके साबुन और हर्बल फ्लोर क्लीनर बनाना भी शुरू किया। ये सारे उत्पाद स्थानीय महिलाओं की मदद से बनाए जाते हैं, जिससे गांव में रोजगार के नए अवसर भी पैदा हुए हैं। ये साबुन लकड़ी के सांचों में तैयार किए जाते हैं और हर टिकिया को हाथ से काटकर पैक किया जाता है। ये सभी उत्पाद 100 प्रतिशत प्राकृतिक हैं और छोटे बैचों में बनाए जाते हैं ताकि गुणवत्ता बनी रहे। खास बात यह है कि वे प्लास्टिक-मुक्त और टिकाऊ पैकेजिंग का उपयोग करते हैं।
बिक्री और आमदनी
फिलहाल, इनका फ्लोर क्लीनर अमेज़न पर भी मौजूद है और साबुन जल्द ही ऑनलाइन आएंगे। इनके उत्पाद फैक्ट्री आउटलेट के ज़रिए भी बिकते हैं। लेमनग्रास तेल की कीमत बाज़ार में 850 से 1500 रुपये प्रति लीटर तक होती है। इनका औसत मूल्य 1200 रुपये प्रति लीटर है। पिछले साल उन्होंने लगभग 30 लाख रुपये का सालाना कारोबार किया। धीरे-धीरे बढ़ती मांग को देखते हुए उन्होंने गांव के तीन अन्य किसानों से गठजोड़ भी किया है। ये किसान उन्हें कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं और बदले में बाजार भाव पर भुगतान पाते हैं।
एक प्रेरणादायक मॉडल
गौरी और दिलीप परब की यह कहानी सिर्फ एक सफल बिज़नेस मॉडल नहीं है बल्कि एक ऐसी प्रेरणा है। जो यह दिखाती है कि यदि सही योजना और मेहनत हो तो खेती भी एक लाभदायक और टिकाऊ व्यवसाय बन सकती है। इस जोड़े ने खुद की ज़िंदगी तो बदली साथ ही गांव में लोगों को रोजगार देकर उनकी भी जिंदगी बदल दी है। जैविक खेती करके उन्होंने जैविक उत्पादों की ओर एक नई दिशा भी दिखाई है।
आज जब युवा महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं, दिलीप और गौरी जैसे लोग यह साबित कर रहे हैं कि अपनी मिट्टी से जुड़कर भी न सिर्फ आत्मनिर्भर बना जा सकता है, बल्कि दूसरों के लिए भी रोज़गार और उम्मीद की किरण जलाई जा सकती है। लेमनग्रास के इस सफर में उन्होंने तकनीक, परंपरा और पर्यावरण तीनों को एक खूबसूरत संतुलन में बांधा है।