वैश्विक तेल बाजार इन दिनों दबाव में है। लगातार बढ़ती सप्लाई, अमेरिका-चीन के बीच तनाव और मध्य पूर्व में शांति की स्थिति ने मिलकर कच्चे तेल (Crude Oil) की कीमतों को नीचे धकेल दिया है। पिछले दो हफ्तों में ही तेल के दामों में करीब 12 फीसदी की गिरावट आई है। WTI क्रूड 4 महीने के निचले स्तर 60 डॉलर प्रति बैरल से नीचे चला गया, जबकि ब्रेंट क्रूड की कीमत 63 डॉलर प्रति बैरल तक फिसल गई है यानी इस साल की शुरुआत से लगभग 16 फीसदी की गिरावट।
बढ़ती सप्लाई से क्यों दबाव में है बाजार
तेल बाजार में फिलहाल सप्लाई ग्लट यानी अधिक आपूर्ति की स्थिति बन गई है। मिराए एसेट शेयरखान के रिसर्च एनालिस्ट मोहम्मद इमरान के अनुसार, सितंबर 2025 के अंत तक वैश्विक बाजार में 0.7–0.8 मिलियन बैरल प्रति दिन की अतिरिक्त सप्लाई है। इसका कारण है OPEC+ देशों द्वारा उत्पादन बहाली, जिससे अप्रैल से सितंबर के बीच वैश्विक सप्लाई में लगभग 2.5% की बढ़ोतरी हुई है। वहीं, IEA की ताजा रिपोर्ट में 2026 तक 3.3 मिलियन बैरल प्रति दिन की सरप्लस सप्लाई का अनुमान जताया गया है।
दूसरी ओर, Non-OPEC+ देशों, खासकर अमेरिका, से सप्लाई में तेजी आई है। जुलाई तक अमेरिका में 26.5 मिलियन बैरल का अतिरिक्त स्टॉक जमा हो चुका था, जिसने कीमतों पर और दबाव बढ़ा दिया।
अमेरिका-चीन तनाव से बढ़ी अनिश्चितता
तेल की कीमतों पर जियोपॉलिटिकल रिश्तों का गहरा असर होता है। 10 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा चीन से आने वाले सामान पर 100% टैक्स लगाने की धमकी ने बाजार में घबराहट पैदा कर दी। हालांकि, कुछ दिनों बाद दोनों देशों के बीच बातचीत फिर शुरू हुई, लेकिन निवेशकों में यह डर अब भी बना हुआ है कि कहीं यह तनाव फिर न बढ़ जाए। चूंकि अमेरिका और चीन दोनों ही बड़े तेल उपभोक्ता और आर्थिक इंजन हैं, इनके रिश्तों में तनाव का असर सीधे क्रूड ऑयल की मांग और कीमतों पर पड़ता है।
एशिया की मांग में गिरावट, भारत है अपवाद
एशिया दुनिया के तेल बाजार का सबसे बड़ा उपभोक्ता क्षेत्र है। भारत और चीन मिलकर वैश्विक मांग का 21 फीसदी हिस्सा रखते हैं। लेकिन फिलहाल चीन की मांग सुस्त हो गई है GDP ग्रोथ 4.6 फीसदी पर सीमित है और इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) की बढ़ती बिक्री ने ट्रांसपोर्ट फ्यूल की खपत को लगभग स्थिर कर दिया है।
सितंबर में चीन के क्रूड ऑयल इंपोर्ट 47.25 मिलियन टन (11.5 mbpd) रहे, जो अगस्त से 4.5% कम हैं। हालांकि भारत में घरेलू आर्थिक गतिविधियों की मजबूत और औद्योगिक ईंधन की बढ़ती मांग ने इसे अपवाद बना दिया है। भारत की रिफाइनिंग और पेट्रोकेमिकल सेक्टर की मजबूत मांग ने वैश्विक गिरावट के बावजूद आंशिक स्थिरता दी है।
मध्य पूर्व में शांति से घटी कीमतों की गर्मी
तेल बाजार के लिए सबसे बड़ा बदलाव 3 अक्टूबर को आया, जब इज़रायल और हमास के बीच सीजफायर समझौता हुआ। इस शांति समझौते के बाद WTI की कीमतों में 1.7% की गिरावट दर्ज की गई। यह समझौता दो साल से चल रहे संघर्ष को थामने की दिशा में अहम कदम है, जिससे तेल के दामों में “रिस्क प्रीमियम” घट गया है।
हालांकि ईरान और इज़रायल के बीच तनाव अभी भी बाजार के लिए जोखिम बना हुआ है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर संघर्ष बढ़ा, तो स्ट्रेट ऑफ होरमुज – जहां से दुनिया के 20 फीसदी तेल की सप्लाई होती है – प्रभावित हो सकती है, और कीमतें फिर से 5–10 डॉलर प्रति बैरल तक बढ़ सकती हैं।
अमेरिकी उत्पादन ने बढ़ाया दबाव
अमेरिका अब दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बन चुका है। जुलाई 2025 में अमेरिकी उत्पादन 13.6 मिलियन बैरल प्रति दिन तक पहुंच गया – जो अब तक का सबसे ऊंचा स्तर है। EIA रिपोर्ट के मुताबिक, 2025 और 2026 में अमेरिका का औसत उत्पादन क्रमशः 13.53 और 13.51 mbpd रहने का अनुमान है। यह बढ़ती सप्लाई, OPEC+ की उत्पादन बहाली के साथ मिलकर, वैश्विक बाजार में अधिशेष तेल (Oversupply) की स्थिति पैदा कर रही है।
आगे क्या रहेगा रुख?
एनालिस्ट मोहम्मद इमरान के अनुसार, तेल बाजार पर अभी “बेयरिश ट्रेंड” यानी मंदी का माहौल है। अधिक सप्लाई, अमेरिका-चीन तनाव, मध्य पूर्व में शांति और रिकॉर्ड अमेरिकी उत्पादन – ये सभी फैक्टर कीमतों को नीचे की ओर धकेल रहे हैं। उनका अनुमान है कि 2025 के अंत तक WTI की औसत कीमत 56 डॉलर प्रति बैरल रह सकती है, जबकि निकट भविष्य में यह 57–62 डॉलर प्रति बैरल के दायरे में घूम सकती है।
तेल बाजार फिलहाल “मांग से ज्यादा सप्लाई” की स्थिति में है। अगर चीन की आर्थिक सुस्ती और अमेरिकी उत्पादन का दबाव जारी रहा, तो 2025 के अंत तक क्रूड ऑयल और सस्ता हो सकता है। भारत के लिए यह स्थिति राहत भरी साबित हो सकती है क्योंकि सस्ता क्रूड सीधे महंगाई और इंधन लागत पर असर डालता है। फिलहाल बाजार की दिशा तय होगी मध्य पूर्व की स्थिरता, अमेरिका-चीन रिश्तों की गर्माहट, और OPEC+ की आगे की नीति पर।