भारत में आलू की मांग सालभर बनी रहती है। लेकिन खेती के पारंपरिक तरीकों में मेहनत, लागत और मिट्टी की थकान तीनों ही किसानों की चिंता बढ़ाते हैं। अब एक नई तकनीक “जीरो टिलेज” (Zero Tillage technology) किसानों के लिए क्रांतिकारी बदलाव साबित हो रही है। इससे न केवल लागत घट रही है, बल्कि आलू की उपज और गुणवत्ता दोनों में जबरदस्त बढ़ोतरी हो रही है।
क्या है जीरो टिलेज तकनीक?
जीरो टिलेज यानी बिना जुताई के खेती। इसमें खेत की मिट्टी को पलटने के साथ धान की फसल कटने के तुरंत बाद उसी खेत में आलू के बीज बो दिए जाते हैं। इस विधि की खासियत यह है कि इसमें धान की पराली को जलाने की जरूरत नहीं होती, बल्कि उसे खेत में ही मल्चिंग (ढकने की परत) के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह प्रक्रिया पर्यावरण के लिए फायदेमंद भी होती है और मिट्टी की नमी और पोषक तत्व भी बनाए रखती है। इस तरीके से किसान 250 से 600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की उपज हासिल कर सकते हैं।
आसान बुवाई, कम मेहनत
जीरो टिलेज पद्धति की सबसे खास बात यह है कि इसमें भारी मशीनरी या गहरी जुताई की जरूरत नहीं होती। धान की कटाई के बाद खेत की नमी को बनाए रखते हुए, किसान आलू के स्वस्थ बीज कंदों को सीधी कतारों में बिछाते हैं। दो कतारों के बीच लगभग 15 से 20 इंच की दूरी रखी जाती है। इसके बाद हर कंद के ऊपर सड़ी हुई गोबर खाद या वर्मीकंपोस्ट की एक परत डाली जाती है। जरूरत के अनुसार डीएपी, यूरिया और पोटाश जैसी खादें भी दी जा सकती हैं।
मल्चिंग है खेती की जान
इस तकनीक में सबसे अहम भूमिका निभाती है धान की पुआल। बीज और खाद डालने के बाद खेत को 6 से 10 इंच मोटी पुआल की परत से ढक दिया जाता है। यह परत मिट्टी की नमी बनाए रखती है, खरपतवार उगने नहीं देती और फसल को ठंड से बचाती है। मल्चिंग के कारण पानी की जरूरत भी काफी घट जाती है। पारंपरिक खेती की तुलना में जीरो टिलेज में 40-50% तक पानी की बचत होती है।
सिंचाई और प्रबंधन
इस पद्धति में पहली सिंचाई बुवाई के 10 से 12 दिन बाद हल्के फुहारे से की जाती है। मल्चिंग के कारण मिट्टी में नमी लंबे समय तक बनी रहती है, जिससे बार-बार पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर ड्रिप इरिगेशन (Drip Irrigation) का इस्तेमाल किया जाए तो 80-90 प्रतिशत तक पानी की बचत संभव है।
फसल कटाई का अनोखा तरीका
जब आलू की फसल तैयार हो जाती है, तो किसानों को फावड़े या खुरपी से खुदाई करने की जरूरत नहीं पड़ती। बस पुआल की परत हटानी होती है और आलू खुद-ब-खुद बाहर आ जाते हैं। इससे आलू के कटने या छिलने का नुकसान नहीं होता और वे ज्यादा चमकदार और उच्च गुणवत्ता वाले निकलते हैं। फसल निकालने में समय और श्रम दोनों की बचत होती है।
किसानों को मिलते हैं कई फायदे
कम लागत, ज्यादा मुनाफा: खेती की लागत में 40-50% तक कमी।
मिट्टी का संरक्षण: मिट्टी में कार्बनिक तत्व और सूक्ष्मजीव बढ़ते हैं।
बेहतर उत्पादन: उपज में 15-20% की बढ़ोतरी।
श्रम की बचत: जुताई, निराई और खुदाई में 50% तक मेहनत कम।
पर्यावरण संरक्षण: पराली जलाने की जरूरत खत्म, ग्रीन हाउस गैसों में कमी।
खरपतवार नियंत्रण: पुआल की परत खरपतवारों को उगने नहीं देती।
किसानों के लिए संदेश
अगर आप भी धान की खेती करते हैं, तो इस सीजन पराली जलाने की जगह उसका उपयोग जीरो टिलेज आलू खेती में करें। इससे किसानों की लागत घटेगी और मुनाफा बढ़ेगा, साथ में पर्यावरण को भी फायदा होगा। कई राज्यों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में किसान इस तकनीक से सफल फसलें भी ले रहे हैं।
धान की पराली से आलू उगाना अब संभव ही नहीं, लाभदायक और टिकाऊ खेती का नया मॉडल बन चुका है। जीरो टिलेज तकनीक खेती को पर्यावरण के अनुकूल बनाते हुए किसानों को कम मेहनत में दोगुना मुनाफा भी दे रही है। इस तकनीकी को सरकार को सभी राज्यों में लागू करना चाहिए जिससे पराली जलाने की समस्या से भी छुटकारा मिलेगा और किसान मुनाफा भी कमाएगा।