हाल ही में देश की जानी-मानी आईटी कंपनी टीसीएस (TCS) में बड़े पैमाने पर छंटनी ने न सिर्फ टेक इंडस्ट्री को झकझोर कर रख दिया, बल्कि पूरे कॉर्पोरेट सेक्टर में बेचैनी बढ़ा दी। जब लोग अपनी मेहनत और योग्यता के दम पर करियर बना रहे होते हैं, तभी अचानक नौकरी जाने का डर उनकी नींद और चैन छीन लेता है। लेकिन इस डर से भी बड़ी समस्या है – हर दिन का बढ़ता वर्क प्रेशर। डेडलाइन पूरी करने की दौड़, बॉस की उम्मीदों पर खरा उतरने का बोझ, टारगेट पूरे करने की जिम्मेदारी और साथ में परिवारिक जिम्मेदारियों का प्रबंधन – आज की नौकरी सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि एक मानसिक परीक्षा बन चुकी है।
तनाव जो जानलेवा बन रहा है
ये वर्क प्रेशर अब सिर्फ असहजता की बात नहीं रही। हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि काम का तनाव अब लोगों की जान ले रहा है। पुणे में हाल ही में एक सरकारी बैंक के वरिष्ठ प्रबंधक ने आत्महत्या कर ली। उन्होंने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि ऑफिस का मानसिक तनाव सहन नहीं हो रहा था। ऐसा ही एक मामला पिछले साल देखने को मिला था जब एक चार्टर्ड अकाउंटेंट अन्ना सेबेस्टियन की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी। उनके पिता ने बताया कि अत्यधिक वर्कलोड और टॉक्सिक ऑफिस कल्चर ने उनकी बेटी की जान ले ली।
उनकी याद में ‘अन्ना सेबेस्टियन इनिशिएटिव’ की शुरुआत की गई है, जो युवाओं को कॉर्पोरेट जीवन की सच्चाइयों से मानसिक रूप से तैयार करने का काम कर रहा है। ये पहल बताती है कि आज की नौकरी सिर्फ स्किल और टैलेंट से नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन और भावनात्मक मज़बूती से भी जुड़ी हुई है।
सरकारी नौकरियां भी नहीं रहीं सुरक्षित
कई लोग आज भी सरकारी नौकरियों को स्थायित्व और तनाव-मुक्त समझते हैं, लेकिन अब वहां भी हालात कम खराब नहीं हैं। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन के एक वरिष्ठ पदाधिकारी श्रीनाथ इंदुचूदान ने बताया कि सरकारी बैंकों में भी काम का प्रेशर लगातार आत्महत्याओं की वजह बन रहा है। उनकी मानें तो पिछले 10 वर्षों में 500 से अधिक बैंक कर्मचारियों ने काम के दबाव में आत्महत्या की है।
EASE रिफॉर्म्स के तहत नई भर्ती न होने के कारण एक ही शाखा में गिने-चुने कर्मचारियों को 12 से 14 घंटे तक काम करना पड़ रहा है। खराब प्रदर्शन की धमकी, मनमाने ट्रांसफर और मानव संसाधन की कमी ने स्थिति को और भयावह बना दिया है।
सर्वे से सामने आई सच्चाई
CIEL HR Services की रिपोर्ट बताती है कि BFSI, कंसल्टिंग और अकाउंटिंग जैसे सेक्टरों में लगभग आधे कर्मचारी हर हफ्ते 50 घंटे से ज्यादा काम करते हैं। इससे बर्नआउट (Burnout) अब असामान्य स्थिति नहीं रही, बल्कि रोज़मर्रा की समस्या बन चुकी है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 38 फीसदी कर्मचारी इस तनाव से परेशान होकर नई नौकरी की तलाश में हैं।
TeamLease Services के CEO कार्तिक नारायण ने भी इस बात पर जोर दिया कि तनाव सिर्फ एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि कार्यस्थल की बड़ी समस्या बन चुका है। उनका मानना है कि नई पीढ़ी के कर्मचारियों और पुराने मैनेजमेंट के बीच सोच का अंतर भी मानसिक थकावट को बढ़ा रहा है।
तनाव के खिलाफ कुछ सकारात्मक कदम
इन गंभीर हालातों को देखते हुए कुछ कंपनियां अब जागरुक हो रही हैं और अपने कर्मचारियों की भलाई के लिए कदम उठा रही हैं। उदाहरण के तौर पर, प्रमैरिका लाइफ इंश्योरेंस ने ‘स्वस्थुम’ नाम से एक हेल्थ प्रोग्राम शुरू किया है। इसमें कर्मचारियों को ध्यान, काउंसलिंग, डिजिटल डिटॉक्स और टीम के साथ रिश्ते बेहतर बनाने के तरीके सिखाए जाते हैं। कंपनी की नीति “फैमिली फर्स्ट” कर्मचारियों को अपने परिवार के साथ संतुलन बनाने में मदद करती है।
कंपनी के HR हेड शरद शर्मा का कहना है कि जब बार-बार थकावट, चिड़चिड़ापन या काम में मन न लगने लगे, तो ये तनाव के शुरुआती संकेत होते हैं। ऐसी स्थिति में तुरंत मदद लेना बेहद जरूरी है।
टाटा स्टील की वेलनेस पॉलिसी
टाटा स्टील ने एक कदम आगे बढ़ते हुए “इमोशनल वेलनेस स्कोर” जैसी नई व्यवस्था शुरू की है। कंपनी ने YourDOST जैसे प्लेटफॉर्म्स के साथ साझेदारी कर काउंसलिंग सुविधा भी शुरू की है, जो अब ठेका कर्मचारियों और उनके परिवारों को भी मिल रही है। साथ ही, “सेल्फ-अप्रूव्ड लीव” की सुविधा दी गई है जिससे कर्मचारी मानसिक थकावट महसूस होने पर खुद ही छुट्टी ले सकते हैं।
सिर्फ दिखावे से नहीं होगा बदलाव
हालांकि, इन पहलों की सराहना होनी चाहिए, लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि देश की ज्यादातर कंपनियां अभी भी “तनाव” को एक व्यक्तिगत कमजोरी मानती हैं, सिस्टम की समस्या नहीं। एक “वेलनेस डे” मना देने से या ऑफिस में योगा सत्र कराने से समस्या का हल नहीं निकलता। ज़रूरत है कंपनी के मूलभूत कामकाज के तरीकों को बदलने की, जहां कर्मचारियों को सिर्फ मशीन नहीं, इंसान समझा जाए।
बदलाव जरूरी
नौकरी का मतलब सिर्फ सैलरी और प्रमोशन नहीं होना चाहिए। एक स्वस्थ, सहयोगात्मक और सम्मानजनक वर्क कल्चर हर कर्मचारी का हक है। समय आ गया है जब कंपनियों को वर्क प्रेशर को “कॉरपोरेट मजबूरी” मानना बंद करना होगा और एक इंसानी नजरिए से कार्यस्थल की संरचना को देखना होगा। तभी एक सशक्त, मानसिक रूप से स्थिर और खुशहाल कार्यबल तैयार हो सकेगा – जो सिर्फ लक्ष्य नहीं, जीवन को भी महत्व दे।