नई दिल्ली। दुनिया तेजी से बढ़ रहे तापमान और जलवायु परिवर्तन के खतरे से जूझ रही है। वैज्ञानिक मानते हैं कि औसत तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने के लिए कार्बन बजट बहुत जल्दी खत्म हो रहा है। इसका मतलब यह है कि हमें अब तुरंत ऐसे उपाय अपनाने होंगे, जो विकास और पर्यावरण दोनों के हित में काम करें। इस संदर्भ में भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि कोयले और उससे बनने वाली बिजली का क्या करें।
कोयला: विकास का इंजन, लेकिन पर्यावरण के लिए चुनौती
भारत अपनी तेजी से बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अभी भी कोयले पर काफी हद तक निर्भर है। कोयला न केवल सस्ता है, बल्कि यह स्थिर बिजली आपूर्ति का एक भरोसेमंद स्रोत भी है। लेकिन, कोयले से बिजली उत्पादन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का मुख्य कारण बनता है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें कोयले का इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर देना चाहिए, लेकिन यह विचार व्यावहारिक नहीं है। ऊर्जा की कमी वाले देशों में बिना कोयले के विकास असंभव है। इसके अलावा, कई विकसित देश जो अब स्वच्छ ऊर्जा अपनाने लगे हैं, उन्होंने दशकों तक कोयले और अन्य जीवाश्म ईंधन से बिजली बनाई। इसका प्रभाव आज भी वातावरण में देखा जा सकता है।
भारत की व्यावहारिक रणनीति
भारत सरकार की योजना यह है कि कोयले को पूरी तरह से छोड़ने के बजाय उसकी मात्रा कम की जाए। वर्ष 2030 तक भारत की ऊर्जा मांग लगभग दोगुनी हो जाएगी, जिसमें पवन और सौर ऊर्जा का योगदान बढ़ेगा। हालांकि, कोयला अभी भी बिजली की लगभग 50 फीसदी जरूरत पूरी करेगा। इसका मतलब है कि भारत को कोयले के साथ नई तकनीकों और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का संतुलन बनाने की जरूरत है।
उत्सर्जन घटाने के तरीके
भारत में कोयला-आधारित ताप विद्युत क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने के लिए कई उपाय सुझाए गए हैं। पहला कदम है मौजूदा संयंत्रों की दक्षता बढ़ाना। उदाहरण के लिए टाटा पावर की ट्रॉम्बे इकाई या तेलंगाना के कोतागुडम संयंत्र जैसे पुराने संयंत्रों को अपनी श्रेणी के सबसे कुशल संयंत्रों के स्तर तक सुधारना होगा। इससे कुल उत्सर्जन में काफी कमी आएगी। दूसरा कदम है बायोमास का इस्तेमाल। कई संयंत्र अब कोयले के साथ 20 फीसदी बायोमास का मिश्रण कर रहे हैं। यह कदम कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद करता है और साथ ही जैविक अपशिष्ट का भी उपयोग करता है।
नई तकनीक और नीतिगत समर्थन
सरकार उन्नत ताप विद्युत संयंत्र बनाने की योजना पर काम कर रही है। नई तकनीक से संचालित ये संयंत्र अधिक कुशल और स्वच्छ होंगे। हालांकि, सही नीतिगत प्रोत्साहन के बिना, नई पीढ़ी की इकाइयां अक्सर 50 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर पर काम करती हैं, जिससे उनका उत्सर्जन पुराने संयंत्रों जितना अधिक हो सकता है। इसका मुख्य कारण मौजूदा मेरिट ऑर्डर डिस्पैच सिस्टम है, जो सबसे सस्ती बिजली पहले बेचने पर आधारित है। इसलिए, कोयले के संयंत्रों को पूरी तरह बंद करने के बजाय उन्हें आधुनिक तकनीक के अनुसार अपग्रेड करना जरूरी है। इससे बिजली सस्ती रहेगी और उत्सर्जन में भी कमी आएगी।
कोयले और स्थानीय स्वास्थ्य
कोयला-आधारित बिजली न केवल कार्बन उत्सर्जन बढ़ाता है, बल्कि स्थानीय हवा की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। जहरीले प्रदूषक तत्व स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालते हैं। इसलिए, केवल कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए नहीं, बल्कि लोगों की स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए भी कोयला संयंत्रों को स्वच्छ और कुशल बनाना आवश्यक है।
ऊर्जा संक्रमण: व्यावहारिक संतुलन
भारत के सामने चुनौती यह है कि वह विकास और स्वच्छ ऊर्जा के बीच संतुलन बनाए। पूरी तरह कोयले को छोड़ देना अभी संभव नहीं है। इसलिए, आवश्यक है कि भारत की ऊर्जा नीति कोयले के उपयोग को धीरे-धीरे कम करने, बायोमास और नई तकनीक को अपनाने और उत्सर्जन को नियंत्रण में रखने पर केंद्रित हो।
अन्य उद्योगों पर असर
कोयला आधारित ताप विद्युत क्षेत्र को कार्बन मुक्त करने से न केवल बिजली क्षेत्र में बल्कि लोहा, इस्पात और सीमेंट उद्योग में भी उत्सर्जन में कमी आएगी। यह एक तरह से व्यापक और सतत बदलाव की दिशा में पहला कदम होगा।
भारत के लिए यह आवश्यक है कि कोयला पूरी तरह खत्म करने के बजाय उसकी मात्रा कम करने, नई तकनीक अपनाने और बायोमास जैसी स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों को बढ़ावा देने पर ध्यान दिया जाए। सही नीतिगत समर्थन और रणनीति के साथ भारत अपने विकास और जलवायु संरक्षण दोनों लक्ष्यों को पूरा कर सकता है। कार्बन उत्सर्जन कम करना पर्यावरण के साथ लोगों की स्वास्थ्य सुरक्षा और देश की सतत विकास की दिशा में भी अहम है। भारत की ऊर्जा नीति यही संकेत देती है कि कोयला पूरी तरह बंद करने की बजाय उसे स्मार्ट और स्वच्छ तरीके से इस्तेमाल करना सबसे व्यावहारिक और प्रभावी समाधान है।