भारत और अमेरिका के बीच संभावित व्यापार समझौते ने एक बार फिर देश के कृषि क्षेत्र में चिंता की लहर पैदा कर दी है। जहां यह समझौता अंतरराष्ट्रीय व्यापार संतुलन के लिहाज़ से एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है, वहीं इसके कुछ प्रावधान घरेलू स्तर पर भारतीय किसानों और एथनॉल आधारित उद्योगों के लिए संकट का कारण बन सकते हैं। खासकर मक्का और सोयाबीन जैसे प्रमुख फसलों पर इसका असर गहरा हो सकता है।
क्या चाहता है अमेरिका, क्यों मच रही हलचल?
इस संभावित समझौते में अमेरिका भारत से मांग कर रहा है कि वह सोयाबीन, सोया तेल और मक्का जैसे कृषि उत्पादों पर लगी व्यापारिक बाधाओं को हटाए। इन वस्तुओं में अमेरिका के पास अधिशेष स्टॉक है और वह इनका बड़ा निर्यातक बनना चाहता है। यदि भारत इस मांग को स्वीकार करता है, तो देश के किसानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा और सबसे अधिक प्रभावित होगा मक्का।
मक्का पर संकट: बिहार की कृषि अर्थव्यवस्था पर सीधा असर
मक्का भारत की तीसरी सबसे बड़ी अनाज फसल है और इसका सबसे मजबूत उत्पादन क्षेत्र बिहार है। 2024-25 में बिहार ने देश के कुल मक्का उत्पादन में करीब 9 से 11 प्रतिशत योगदान दिया। लेकिन आंकड़े सिर्फ उत्पादन नहीं बल्कि प्रति हेक्टेयर पैदावार और विकास दर के स्तर पर भी बिहार की स्थिति को खास बनाते हैं।
पिछले छह वर्षों में बिहार में मक्के की उपज में 8 प्रतिशत की सालाना चक्रवृद्धि दर (CAGR) दर्ज की गई है, जो राष्ट्रीय औसत (2%) से कहीं अधिक है। इतना ही नहीं, मक्का राज्य के किशनगंज, सहरसा, अररिया, पूर्णिया और खगड़िया जैसे उन सीमांचल जिलों की रीढ़ बन चुका है, जहां की कृषि ही स्थानीय अर्थव्यवस्था को संभालती है।
एथनॉल क्रांति और मक्का की भूमिका
बिहार ने मक्का के सहारे अनाज-आधारित एथनॉल उत्पादन में भी बड़ी छलांग लगाई है। राज्य में फिलहाल 17 अनाज-आधारित एथनॉल इकाइयां कार्यरत हैं, जिनकी उत्पादन क्षमता 65 से 250 किलोलीटर प्रतिदिन तक है। एथनॉल उत्पादन ने न केवल मक्के की मांग को स्थिर रखा है, बल्कि किसानों को बेहतर दाम और स्थानीय रोजगार भी उपलब्ध कराया है।
मक्का का बाज़ार मूल्य 2022 में 1600-1700 रुपये प्रति क्विंटल था, जो बढ़कर 2024 में 2500-2600 रुपये तक पहुंच गया। यानी दो वर्षों में मक्का की कीमतों में लगभग 25 फीसदी की चक्रवृद्धि वृद्धि देखी गई। इससे किसानों की आय में सुधार हुआ और ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को नया जीवन मिला।
बढ़ते रोजगार और परिवहन का विकास
एथनॉल इकाइयों का एक और बड़ा प्रभाव स्थानीय रोजगार पर पड़ा है। औसतन 100 किलोलीटर की डिस्टिलरी करीब 225-250 लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार देती है, जिनमें से आधे से ज्यादा स्थानीय लोग होते हैं। इसके अतिरिक्त, उत्पाद के ट्रांसपोर्टेशन ने टैंकर, लॉजिस्टिक्स और सहायक सेवाओं के सेक्टर में भी रोज़गार बढ़ाया है।
ईस्टर्न इंडिया बायोफ्यूल्स लिमिटेड के सह-प्रवर्तक अविनाश वर्मा का कहना है कि मक्का की स्थिर कीमत और एथनॉल इकाइयों का असर बिहार के ग्रामीण इलाकों में एक सकारात्मक बदलाव लेकर आया है जो सिर्फ कृषि तक सीमित नहीं है।
राजनीतिक मायने और सीमांचल का समीकरण
बिहार में अक्टूबर-नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं और ये वो समय होता है जब खरीफ सीजन की मक्का फसल कटती है। सीमांचल क्षेत्र जहां मक्का उत्पादन का केंद्र है, वहां राजनीतिक रूप से राजद, जद (यू) और एआईएमआईएम का गहरा प्रभाव रहा है। यदि मक्का का आयात खुला होता है और घरेलू किसानों को नुकसान होता है, तो यह राजनीतिक समीकरण को भी बदल सकता है।
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी चिंता
मक्का के अलावा सोयाबीन भी इस संभावित व्यापार समझौते की चपेट में है। विशेष रूप से मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों को चिंता है कि अगर अमेरिका से सस्ता सोयाबीन या तेल आयात होता है, तो पहले से ही दबाव में चल रहे स्थानीय बाजारों को और नुकसान होगा। अभी सोयाबीन की कीमतें 3800–4200 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हैं, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से भी कम है। आयातित माल की आमद इन दामों को और नीचे खींच सकती है।
मध्य प्रदेश, जो वर्तमान कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान का गृह राज्य भी है, वहां किसानों की नाराजगी का असर चुनावों में देखा जा चुका है। विशेषज्ञ मानते हैं कि साल 2017 में राज्य चुनाव हारने के पीछे भी सोयाबीन के दामों की गिरावट एक प्रमुख कारण थी।
क्या विकल्प हैं भारत के पास?
सरकार के सामने अब एक बड़ी चुनौती है – वैश्विक व्यापार संतुलन और घरेलू किसान हितों के बीच संतुलन बनाना। भारत की खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और एथनॉल नीति सब कुछ मक्के और सोयाबीन जैसे फसलों से जुड़ा है। ऐसे में अमेरिका के दबाव में आयात खुलने से पहले, सरकार को एक ठोस नीति बनानी होगी जो किसानों और उद्योग दोनों को सुरक्षित रख सके।